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कहानी : कश्मकश

“ये आवाज़ क्यों ठीक से नहीं आ रही, शायद हेड फोन ठीक से नहीं लगा....” हैडफ़ोन को उसने कान से उठाकर फिर से लगाया “मगर ये तो ठीक है...यहां कुछ ठीक से काम नहीं करता, सारा काम मैं ही देखूं ...मैं न रहूँ ,तो पता नहीं क्या होगा ..”वो अपने आप से बातें किये जा रही थी, उसे चिढ सी मच रही थी ... “मैं न रहूँ....लेकिन मैं जा कहाँ रही हूँ ...मुझे नहीं कहीं जाना...ज़बरदस्ती थोड़े ही है, मैं तो सोच भी नहीं सकती.....और ये...ये तार तो मैं ही सदर से खरीद कर लायी थी,कितनी रात हो गयी थी, उस दिन ....उन तारों को प्यार से धीरे धीरे पोंछते हुए लपेट रही थी और अपने अतीत को उन लिपटे तारों से अलग कर रही थी .....अलग नहीं कर रही थी , अलग करने की कोशिश कर रही थी... फिर वो चह्कते हुए माइक के नीचे पड़े नीले से टेबल क्लॉथ पर बने रंग बिरंग फूल पर उँगलियों घुमाने लगी, उसे शायद वो महसूस कर रही थी   “ ये ,ये टेबल क्लॉथ .... बुधनी काकी के चार पांच दिन आगे पीछे घूमे.. उनका बैंक का काम कर दिए ,तब जाकर वो कढाई कर दी थी, यहाँ रेडियो में लगाने के लिए ......इतना कहते ही उसकी   आँखों से दो मोटे मोटे बूँदें उस फूल को ग...