फिर वो रात कब आएगी.........



कहते हैं, सूरज और चाँद पर सबका हक़ है। अपने हिस्से की रौशनी और रात की चांदनी सबको मिलती है।दिन का हर पहर सबके लिए है,  ज़रा दिल पर हाथ रख कर कहिये क्या ये सच है.... सभी माओं बेटियों और बहनों से ये मेरा सवाल है। दिन के सूरज को तो हम सब देख सकते हैं, महसूस कर सकते हैं, उसकी रौशनी में डूब सकते हैं लेकिन रात और उसकी चांदनी, उसकी ठंडक को आगोश में नहीं ले सकते हैं, क्यूंकि रात को हमसे छीना गया है,  रात तो हमारे लिए है ही नहीं। जिस चाँद को लेकर नारी के लिए कवि और लेखक ने इतनी रचनाएँ की है उसी चाँद से उस स्त्री को महरूम कर दिया गया है, इसे विडंबना नहीं तो और क्या कहेंगे।
आज महिलाएँ अलग-अलग क्षेत्रों में काम कर रही हैं ऊँचे पदों पर आसीन है, आत्म निर्भर हैं गजब का आत्मविश्वास भरा है, आँखों में ऐसी चमक है मानों पूरे जग जीतने का जज़बा हो लेकिन जैसे जैसे दिन सिकुडता है और रातें बाहें पसारने लगती है, ये आत्म विश्वास पुरुष के विश्वास से जुड़ने लगता है, ये आत्म निर्भरता पुरुष पर निर्भरता बन जाती है। माँ हर बार कहती है  बेटी घर जल्दी आ जाना। शाम मत होने देना। बेटी ने इस बात कि गाँठ बांध ली है शाम होने से पहले घर के दहलीज के अंदर चले जाना है। मुझे आज तक नहीं समझ में नहीं आया- किसने किया ये बंटवारा - ऊपर वाले ने तो नहीं किया न...इसका मतलब  ये तो हमने और आपने, स्त्री और पुरुष ने, इस समाज ने मिलकर ये दीवार खींची है।
क्या ये अन्याय नहीं,  क्या हम स्त्रियों का कोई हक़ नहीं??  हम भी आराम से, बिना किसी ङर के रात में सड़क पर चल सके, क्यूँ हम औरतों को हर बार अपनी सुरक्षा के लिए सेफ्टी पिन , मिर्च पाउडर, कलम कि नोंक पर निर्भर रहना पड़ता है... क्यों..
मेरी माँ भी पहले मुझे कहा करती थी जल्दी घर आ जाया करो। धीरे धीरे उसने मुझे और मेरे काम को समझा, पत्रकारिते के पेशे में रात और दिन का कोई भेद नहीं होता , उसने भी फिर भेद करना छोड दिया , अब बस ये कहती है अपनी सेहत  का ध्यान रखो .... दिल को सुकून मिला। माँ ने जब इतनी हिम्मत कि तो मेरे दिल ने भी कुछ जुर्रत करने की सोची - ये रात हम लेकर रहेंगे,  ये जुर्रत ३१ दिसंबर कि रात अपने मजमा और सिटीजन कलेक्टिव अगेंस्ट सेक्सुअल असाल्ट संगठन के साथियों के साथ मिलकर दिल्ली के ग्रीन पार्क के इलाके में रात के तीन घंटे सड़क पर जमकर गाना गा कर किया।
यह मेरा पहला अनुभव था रात के दो बजे ऑटो से घर लौटी, एक और महिला मेरे साथ थी जो अपने पांच साल की बिटिया के साथ इस जुलूस में शामिल हुई थी, वो गुनगुना रही थी - जिस्म मेरी है , जान मेरा है तुम कैसे हक़दार बने , किसने सौंपी तुमको चाभी , तुम कैसे पहरेदार बने। फिर मज़े में हम तीनों ही गाने लगे।
इतनी बेख़ौफ़ रात - जहाँ रात भी मेरी और सड़क भी मेरी थी। पहले साल के पहले दिन के पहले क्षण को जी भर कर जिया। सोचती हूँ इतनी बेख़ौफ़ रात फिर कब आएगी। .. न न .... अब तो उम्मीद है ये रात कभी न कभी तो आएगी..... लेकिन आएगी ज़रूर......


   

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