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ज्ञान और अनुभव को कैसे अलग....

ज्ञान और अनुभव को कैसे अलग किया जा सकता है। आप ने बड़े ही फुर्सत में लिखा है कि आपको ज्ञान बघारना नहीं आता है॥आखिर इस ज्ञान को कैसे परिभाषित किया जाए ॥जिसे हम ज्ञान कह कर उपेक्षित ठहरा रहे हैं दरअसल वह भी अनुभवों के आधार पर विकसित हुआ है। इसलिए जिस अनुभव को आप उपयोगी बता रही हैं वह किसी चीज को समझने की क्षमता यानी ज्ञान का पूर्ववर्ती स्वरूप है। किसी का अनुभव दूसरे के लिए ज्ञान बन जाता है। जैसे चाकू की धार को जांचते हुए उंगली काटने का अनुभव अगली पीढ़ी के लिए ज्ञान बन जाता है। जरूरी नहीं कि अगली पीढ़ी हाथ काटने के अनुभव से ही गुजरे।

क्या राहुल वाकई मर गया

राहुल की उम्र देश के युवाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जिस तरह से हमने गड़बड़ियां पैदा की हैं...उसका नमूना है राहुल का राज ठाकरे से बात करने की जिद ...जबकि वह सिर्फ बात करना चाहता था ,फिर भी उसकी आवाज को दबा दिया गया। उससे पुलिस को इतना खतरा क्यों लगा। जबकि उसने न तो किसी को मारा और न ही उससे पास पिस्टल के अलावा कोई हथियार था। अगर उसका उद्देश्य मारना होता तो वह राज ठाकरे से बात करने की जिद क्यों करता । लेकिन भारतीय स्टेट पुलिस की एक और सक्रियता...एक और सफलता.....एक और एन्काउटर.....मारने वाले पुलिस इंस्पेक्टर के प्रोफाइल में एक और एनकाउन्टर की बढ़ोत्तरी.... जिस प्रक्रिया के तहत भारत में विकास को आगे बढाया जा रहा है,उसके आधार पर इसकी सम्भावना तेज हो जाती है कि सैकड़ों राहुल लोकबाग, अदालती कार्यवाहियों और शासकीय सुरक्षा पर विश्वास करने के बजाए खुद ही हथियार उठाने लगें। राजठाकरे को रोकने के लिए सीधे चुनौती देने वाला राहुल यह कतई साबित नहीं करता कि वह आज के हालात में अकेला विद्रोही है। फिलहाल पुलिस ने उसे मार दिया है, लेकिन उसकी मौत ने यह बताने में सफलता हासिल कर ली है,स्थितियों के और बदतर...

ब्लास्ट क्या क्या दे सकता है

असम में एक और धमाका ,कुछ भी नया नहीं ............. हाँ पिछले चार ब्लास्ट में से अब तक का सबसे बड़ा ब्लास्ट जरूर कहा जा सकता है । १३ मई जयपुर,२५ जुलाई बंगलोर,२६ जुलाई अहमदाबाद ,१३ सितम्बर दिल्ली और ३० अक्टूबर असम । कोई आंकडा नहीं दे रही हूँ सभी को ये मालूम है ............हम इतने आदि हो गए है की हमें अब फर्क ही नही पड़ता है क्या हुआ नही हुआ ...........हाँ ये जरूर कहा जा सकता है की इससे मीडिया को ख़बर मिली ,और बड़े जर्नलिस्ट को आर्टिकल और एडिटोरिअल लिखने का मौका ............रूलिंग पार्टी को लोगों के करीब जाने का मौका मिला .........और विपक्षी को विवाद का मुद्दा मिला । सबको कुछ न कुछ मिला । सभी खुश हैं जिन्होंने ब्लास्ट किया उन्हें भी जरूर मिली होगी शान्ति .......अशांति फैला कर । बस जिन्हें कुछ नही मिल सका तो वो है आम जनता .......महंगाई में तो पिस ही रही थी ,ऊपर से ये धमाका जिसने इतना हिला दिया की वे आम जनता अब कभी स्थिर हो ही नहीं सकती । त्यौहार से पहले त्यौहार के बाद धमाके अब आम बात हो गए । मंगलवार और शनिवार भी धमाकों के प्रिय दिनों में से एक हो गए हैं । नेताओं के बयां धमाके के बाद सभी को ...

ख़बर थी या बहस !!!!

हर ख़बर एक बहस को जनम देती है ,और बहस में एक तर्क की गुंजाईश होती है ,तर्क एक नया रास्ता बनती है जो सतत विकास की और अग्रसर होता है ।

सलाह एक हमारी मानो

अमर जी आप बड़े विश्वासी है , वक़्त पड़ने पर कभी बिग बी और अब तो कांग्रेस के साथी हैं एक जमाना था ,जब कांग्रेस से आप थे खफा, अब तो सब है आपके वफ़ा आपकी गठबंधन तो बड़ा रंग लाइ , कुछ नै बंधन देखने को है आई हर चैनल पर आपकी टी आर पि बढ़ी हुई है, हर बाईट पर सबकी नज़र गडी हुई है राजनीती का असली दाव यही है , जो किए जा रहे हो सब सही है सलाह अब एक हमारी मानो , मांग न लेना कांग्रेस से कोई ऐसा विभाग जो भड़का दे की रात्रि भोज की आग हम तो यही दुआ करते है , बने चाहे दुश्मन जमाना तुमहरा सलामत रहे दोस्ताना तुमहरा .

मिस्टर झा ---- नॉट सटिसफेड

मेरे एक मित्र हैं और भाई भी, मगर मुम्बई वाला भाई नही, बगिश भाई फिलहाल मुम्बई में ही .कार्य रत हैं बगीश भाई को अंग्रेज़ी बोलने का बड़ा शौक है हर बात को वे सर हिला हिला कर अंग्रेज़ी में ही बताएँगे ऐसे टू चुप ही रहते हैं, मगर जिस दिन बोले समझो क्लास में मुम्बई का ब्लास्ट हो गया हो किसी बात से बगीश भाई संतुष्ट नहीं हर बात में उन्हें तेधा ही नज़र आता है .उन्हें संस्थान पसंद नहीं ,शिक्षक पसंद नहीं,विभाग पसंद नहीं , बगीश भाई की बात ही निराली ,एक भी अस्सिग्न्मेंट उन्होंने आखिरी वक्त तक जमा नही किया .जब कभी हम परीक्षा में बैठते टू सभी छात्र कौतुहल वश पूछते एराहते बगीश गी हिन्दी में लिख रहे हैं या अंग्रेज़ी में .लेकिन एन सबसे जरूरी यह था बगीश भाई सटिसफेड हैं या नही h u म सबों की ये जिज्ञ्सा यथावत बनी हुई है . मुम्बई जाने के बाद बगीश भाई कितने सतिस्फिद है? ये बात टू हमलोगों के लिए हमेशा कौतुहल का विषय रहेगा .

मुग्ध से मुक्त हो !

कुछ दिन पहले हमारे संस्थान में शर्मीला टागोर जी का आगमन हुआ । वे फ़िल्म सर्टिफिकेशन की मीटिंग में आयी हुई थी। जैसे ही ये ख़बर हम को ,लगी वहां उनसे मिलने पहुंचे ।बाहर बैठ कर हम सब उनका इंतजार कर रहे थे । उसी दौरान मैं Yसोच रही थी की क्यों हम उनसे मिलने इतने उतावले ,इतने पागल क्यों!हुई जा रहे हैं । हम क्यों किसी के लिए इतनामुग्ध हो जाते हैं । हम जिसके मुग्ध होते हैं वास्तव में ये टू उनका पर्सनल इंटरेस्ट है ,हमारा उससे क्या लेना देना ?उन्हें यश भी मिल रहा है और दौलत भी । लेकिन हम फिर भी उनके पीछे भाग रहे हैं । हमारी गलती नही है हमारा माइएंद सेट हई ऐसा हो गया है । हर के पीछे भागने की बीमारी हो गए है । मेरे विचार से हमें एस तरह से मुग्ध होने से बचना चाहिए इससे मुक्त होना चाहिए ।एक पत्रकार होने के नाते हमारे लिए बड़ा- छोटा कोई मायने नही रखता .यही सोच कर हम सभी शर्मीला जी मिले बिना लौट गए ।

राष्ट्र की दुर्गति

राष्ट्रीय खेल हॉकी 8 ० साल के ओलम्पिक सफर में जब बीजिंग कौलिफई नही कर पाई तो उसके अस्तित्व पर कोहराम मच गया । कहीं तो उसे राष्ट्रीय खेल की दुर्गति कहा गया और कहीं इसे शर्मनाक कहा गया। गौर करके देखिये जहाँ राष्ट्रीय शब्द आया है उसकी स्थिति कितनी दुरुस्त है राष्ट्रीय पशु बाघ विलुप्त होते जा रहे हैं । राष्ट्रीय पक्षी मोर तो अब चिडिया घर में भी सीमित हैं । राष्ट्रीय गीत और गान पर पहले से ही शोर शराबा है । इनका आदर करना तो हम भूल ही गए है । राष्ट्रीय स्मारक की दुर्दशा सबके सामने है । कमल हमारा राष्ट्रीय फूल यह तो शायद सब भूल ही गए होंगे । राष्ट्र भाषा हिन्दी को बौलीवुड छोड़कर बाकि सभी ने तो दरकिनार ही कर दिया है । राष्ट्रीय नेता क्या अब राष्ट्रीय रहे, नही वे तो आजकल प्रांतीय के नक्शे कदम पर चल रहे हैं । जिन्हें हल्ला बोल ही करना तो इन सब पर करो । इसके लिए राष्ट्रीय खेल हॉकी ही क्यों ?

वक्त जीने के लिए है न की काटने के लिए

आपकी कविता ने जैसे मुह की बात ही छीन ली हो। लेकिन मैमानता हूँ की वक्त को काटने के बजाय जीना चाहिए। बहुत मुश्किल भी नही है बस जैसा माहौल हो वैसा बन जाइये। काफी मुश्किल होता है ऐसा करना लेकिन अगर कुछ बेहतरीन लोगों का साथ मिले तो आसानी से हो सकता है। अब मुश्किल है कि बेहतरीन लोगों को कैसे पाया जाय। ऐसे लोग मिल जाते है अगर अपने अहम को थोड़ा सा दबा कर अपनी स्वाभाविक व्यवहार को अपनाया जाय । बस आपकी अगली कविता का इंतजार रहेगा ।

सफर कट जाएगा!

हम चले थे उनके साथ कि सफर कट जाएगा आँखों में सपने थे, दिल में तरंगें थी, बहुत कुछ कहना था उनसे हिलोरें ले रही उमंगें थी! शायद खुदा को कुछ और मंजूर था मोड़ आया ऐसा कि रास्ते अलग हो गए जिस तरह चले थे, उनके साथ की सफर कट जाएगा! चले हैं सफर के साथ कि वक्त कट जाएगा !!